I hate you mom
I hate you
यदि आप २४ में से १-२ घंटे भी टीवी देखने में बिताते हैं तो पिछले ४-५ दिनों में ऊपर लिखी ये पंक्तिया आपके कानो में ज़रूर गूंजी होगी… ये शब्द एक टीवी विज्ञापन जो कि ब्लड प्यूरीफायर सिरप हमदर्द की “साफ़ी” का है… इसमें बताया गया है कि कुछ लडकियां जो अपने चेहरे पर उभरे मुहासों और उनके दागो से परेशान हैं… अपनी खूबसूरती पर लगे इस दाग के लिए ये लड़कियां अपनी माँ को जिम्मेदार बताती है इसका कुतर्क कुछ यूँ बताया जाता है कि
“कहते हैं कि रूप माँ से मिलता है, ये रूप?” ये लाइन एक लड़की मुहासों से घिरा अपना चेहरा दुनिया को दिखाते हुए कहती है…
“मम्मी की स्किन इतनी फ्लोलेस और मेरी ?” दूसरी लड़की ये लाइन कहती है…
“माँ बेटी…? अरे ये तो बहने लगती हैं”
“संगमरमर जैसी स्किन वाली माँ की खुरदुरी बेटी”
“पिम्पल क्वीन”
“स्कारफेस” “मून सरफेस” “हेरेडीट्री” “डीएनए”
सब झूठ है… “तुमने नही दिया मुझे अपना रूप माँम”
I hate you mom
I hate you mom
I hate you mom
I hate you
इसके बाद एक कमर्शिअल वौइस् ओवर आता है “अपना दोष माँ पर, उनका वक़्त और था आपका और है, अपनाइए हमदर्द की साफ़ी……..ब्ला, ब्ला, ब्ला”
इसके बाद सभी लड़कियों के चेहरे पर नूर बरसने लगता है और वो लड़की जो I hate you mom कह रही थी वो I love you mom कहने लगती हैं…
जब इस विज्ञापन को गौर से देखा जाये तो इसके अन्दर रचे बसे पाश्च्यात मनोविज्ञान को आसानी से समझा जा सकता है… क्या एक माँ और बेटी के बीच में प्रेम का आधार सिर्फ साफ़ चेहरा और निखरी रंगत ही है…? क्या जो लडकिया खुबसूरत नहीं होती वो अपनी माँ से प्रेम नहीं करती ? या हर खुबसूरत लड़की का अपनी माँ से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होना अंतिम सत्य माना जा सकता है ? क्या ये स्थापित सत्य है कि खुबसूरत माँ की लड़की खुबसूरत ही होती है ? क्या कभी बेटी माँ से ज्यादा सुन्दर नहीं हो सकती ? क्या कृतिम साधनों से खुबसूरती प्राप्त करके प्रेम भी पैदा किया जा सकता है ? यदि इस विज्ञापन की फिलोसफी को आधार बना कर इन सवालो का जवाब खोजें तो जवाब “हाँ” में आएगा…
असल में जैसे-जैसे इंसान की गति ह्रदय से दूर होते हुए मस्तिष्क की और बहने लग जाती है तब-तब प्रेम और अध्यात्म की सारी व्यवस्थाएं भौतिकवाद से प्रभावित होने लग जाती है, प्रेम का आधार अकारण न रह कर कारण आधारित रह जाता है… कभी कभी ये कारण बड़े क्षुद्र और हास्यास्पद होते हैं… यदि आकर्षण और प्रेम किसी कारण से पैदा हो सकता है तो इस बात की ९९% सम्भावना है कि कारण की समाप्ति के साथ ही उस आकर्षण और प्रेम की भी समाप्ति भी हो जायेगी… कारण आधारित प्रेम कारण की समाप्ति के साथ ही दम तोड़ देता है…
माँ और उसकी संतान के बीच पनपा प्रेम करुणा और वात्सल्य से पनपता है न कि किसी ख़ूबसूरती और बदसूरती जैसे भौतिक कारण से खैर विज्ञापन की फिलोसफी को आधार बनाएँ तो लब्बोलुआब यही है कि हमदर्द की साफ़ी माँ के प्रति बेटी की नफरत को प्रेम में बदल सकती है वो भी सिर्फ ५०-६० रूपये जैसी कम कीमत में…
नोट : ये वही हमदर्द कम्पनी है जिसे अपने यहाँ गैर-मुस्लिमो को नौकरी पर न रखने के लिए सेक्युलर जमात द्वारा भारत की सबसे सेक्युलर कंपनी होने का प्रमाणपत्र मिला है…