शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

माँ के प्रति अपनी नफरत को बदले प्रेम में, मूल्य सिर्फ ५० रु मात्र…

I hate you mom
I hate you mom
I hate you
यदि आप २४ में से १-२ घंटे भी टीवी देखने में बिताते हैं तो पिछले ४-५ दिनों में ऊपर लिखी ये पंक्तिया आपके कानो में ज़रूर गूंजी होगी… ये शब्द एक टीवी विज्ञापन जो कि ब्लड प्यूरीफायर सिरप हमदर्द की “साफ़ी” का है… इसमें बताया गया है कि कुछ लडकियां जो अपने चेहरे पर उभरे मुहासों और उनके दागो से परेशान हैं… अपनी खूबसूरती पर लगे इस दाग के लिए ये लड़कियां अपनी माँ को जिम्मेदार बताती है इसका कुतर्क कुछ यूँ बताया जाता है कि
“कहते हैं कि रूप माँ से मिलता है, ये रूप?” ये लाइन एक लड़की मुहासों से घिरा अपना चेहरा दुनिया को दिखाते हुए कहती है…
“मम्मी की स्किन इतनी फ्लोलेस और मेरी ?” दूसरी लड़की ये लाइन कहती है…
“माँ बेटी…? अरे ये तो बहने लगती हैं”
“संगमरमर जैसी स्किन वाली माँ की खुरदुरी बेटी”
“पिम्पल क्वीन”
“स्कारफेस” “मून सरफेस” “हेरेडीट्री” “डीएनए”
सब झूठ है… “तुमने नही दिया मुझे अपना रूप माँम”
I hate you mom
I hate you mom
I hate you mom
I hate you
इसके बाद एक कमर्शिअल वौइस् ओवर आता है “अपना दोष माँ पर, उनका वक़्त और था आपका और है, अपनाइए हमदर्द की साफ़ी……..ब्ला, ब्ला, ब्ला”
इसके बाद सभी लड़कियों के चेहरे पर नूर बरसने लगता है और वो लड़की जो I hate you mom कह रही थी वो I love you mom कहने लगती हैं…
जब इस विज्ञापन को गौर से देखा जाये तो इसके अन्दर रचे बसे पाश्च्यात मनोविज्ञान को आसानी से समझा जा सकता है… क्या एक माँ और बेटी के बीच में प्रेम का आधार सिर्फ साफ़ चेहरा और निखरी रंगत ही है…? क्या जो लडकिया खुबसूरत नहीं होती वो अपनी माँ से प्रेम नहीं करती ? या हर खुबसूरत लड़की का अपनी माँ से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होना अंतिम सत्य माना जा सकता है ? क्या ये स्थापित सत्य है कि खुबसूरत माँ की लड़की खुबसूरत ही होती है ? क्या कभी बेटी माँ से ज्यादा सुन्दर नहीं हो सकती ? क्या कृतिम साधनों से खुबसूरती प्राप्त करके प्रेम भी पैदा किया जा सकता है ? यदि इस विज्ञापन की फिलोसफी को आधार बना कर इन सवालो का जवाब खोजें तो जवाब “हाँ” में आएगा…
असल में जैसे-जैसे इंसान की गति ह्रदय से दूर होते हुए मस्तिष्क की और बहने लग जाती है तब-तब प्रेम और अध्यात्म की सारी व्यवस्थाएं भौतिकवाद से प्रभावित होने लग जाती है, प्रेम का आधार अकारण न रह कर कारण आधारित रह जाता है… कभी कभी ये कारण बड़े क्षुद्र और हास्यास्पद होते हैं… यदि आकर्षण और प्रेम किसी कारण से पैदा हो सकता है तो इस बात की ९९% सम्भावना है कि कारण की समाप्ति के साथ ही उस आकर्षण और प्रेम की भी समाप्ति भी हो जायेगी… कारण आधारित प्रेम कारण की समाप्ति के साथ ही दम तोड़ देता है…
माँ और उसकी संतान के बीच पनपा प्रेम करुणा और वात्सल्य से पनपता है न कि किसी ख़ूबसूरती और बदसूरती जैसे भौतिक कारण से खैर विज्ञापन की फिलोसफी को आधार बनाएँ तो लब्बोलुआब यही है कि हमदर्द की साफ़ी माँ के प्रति बेटी की नफरत को प्रेम में बदल सकती है वो भी सिर्फ ५०-६० रूपये जैसी कम कीमत में…
नोट : ये वही हमदर्द कम्पनी है जिसे अपने यहाँ गैर-मुस्लिमो को नौकरी पर न रखने के लिए सेक्युलर जमात द्वारा भारत की सबसे सेक्युलर कंपनी होने का प्रमाणपत्र मिला है…

बुधवार, 13 मई 2015

सच्ची घटनाओं पर बेहतरीन फिल्म्स बनाने वाले महान फिल्म डायरेक्टर स्टीवन स्पीलबर्ग की २००५ आई MUNICH {म्यूनिख} एक सच्ची घटना पर बेस्ड फिल्म थी... फिल्म में जर्मन ओलंपिक १९७२ के बेकड्राप को फिल्माया गया था... फिल्म के शुरूआती सीन में कुछ आतंकवादी म्युनिक में हो रहे ओलंपिक में एक प्लानिंग के तहत इजराइल के कुछ खिलाडियों को उनके कमरों में जा कर गोलियों से भून देते हैं और इसके बाद सभी आतंकी जल्द से जल्द दुनिया के अलग अलग कोने में बसे देशों में जा कर छिप जाते हैं... अगले ही सीन में इजराइल के प्राइम मिनिस्टर, मोसाद {इजराइली खुफिया एजेंसी} के अधिकारियो को “Operation wrath of GOD” नामक मिशन {जिसके तहत मोसाद को उन आतंकवादी को मारना है जो म्युनिक के हत्याकांड में डायरेक्ट या इनडायरेक्ट शामिल थे} को अंजाम देने का आदेश देता है... इसके बाद पूरी फिल्म में मोसाद के एजेंट उन आतंकवादियों को अलग अलग देशो में जा कर मारते है... ये आपरेशन २० साल तक चलता है...
इस फिल्म के बारे में यहाँ इसलिए बताना चाह रहा था कि कल मैंने भारत के तथाकथित {so called} मोस्ट वांटेड आतंकी हाफिज सईद को कहते सुना कि “रशिया ने जो अफगानिस्तान में किया उसका बदला हमने उसके टुकड़े-२ करके ले लिया अब बारी हिन्दुस्तान और इजराइल की है इन दो देशो को नेस्तनाबूत करने के बाद पूरी दुनिया में इस्लाम का परचम फेहराया जा सकेगा”।
अगर मेरी बात हाफिज सईद तक पहुंचे तो उसे मेरा सुझाव होगा कि मियां हिन्दुस्तान में तो ठीक है लेकिन भूल से भी इजराइल में तुम कुछ ऐसी वैसी हरकत मत पटक देना नहीं तो न तुम्हारे सर पर सऊदी की दिनारो से बुनी टोपी रहेगी न पाकिस्तानी हुकूमत की सरपरस्ती में बढ़ी हुई दाढ़ी... अगर ऐसा वैसा कुछ कर डाला तो भेस बदल कर दुनिया के दुसरे कोनो में मारे मारे फिरोगे और भागने के लिए तुम्हे इस प्रथ्वी की जमीन भी कम पड़ जाएगी साथ ही एक दिन आएगा जब तुम अपने कुछ साथियों के साथ किसी गुफा में सुस्ता रहे होगे और न जाने कहाँ से मोसाद के कुछ एजेंट अचानक प्रकट होंगे और तुम्हारे शरीर में गोलियों से इतने छेद करेंगे की पूरा शरीर एक बड़े छेद में तब्दील हो जाएगा और तुम्हारे शरीर में प्राकृतिक छेदों की जगह केवल बुलेट्स फंसी हुई दिखाई देंगी. क्योकि वो मुल्क {इजराइल} हिन्दुस्तान की तरह सामाजिक और राजनेतिक नपुंसकता का शिकार नहीं है बल्कि पौरुषता का जीता जागता हस्ताक्षर है...
सही समझा, हिन्दुस्तान की सामाजिक और राजनेतिक व्यवस्था {social & political scenario} नपुंसकों की जमात {bunch of unwilling person} से ज्यादा कुछ नहीं और हम सब न चाहते हुए भी उन नपुंसकों की भीड़ में मोजूद एक चेहरा हैं...
इससे बड़ी राजनेतिक नपुंसकता {political unwillingness} का उदाहरण और क्या होगा कि एक टूच्चा सा देश पाकिस्तान जब मर्जी होती है सीमापार से फायरिंग करता है हिन्दुस्तान विरोधी लोगो की मेहमाननवाजी करता है देश में ब्लास्ट करवाता है और जब देखो गरियाता रहता है... कश्मीर और असम में सरे आम तिरंगा जलाया जाता है हिन्दुस्तान मुर्दाबाद और पकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगते हैं और हमारे देश के सभी दलों के नेता एक स्वर में उपरोक्त सभी कृत्यों पर केवल हम इसकी निंदा करते हैं बोल कर अपने-२ फोन में केंडी-कृष खेलने लग जाते हैं...
सामाजिक नपुंसकता {social unwillingness} शब्द इसलिए प्रयोग किया कि विन्स्टेल चर्चिल ने भारत की आजादी के समय कहा था कि हिन्दुस्तान की कौम आजादी पाने के लायक नहीं बल्कि ये गुलामी पसंद है इन पर चाहो तो और २०० साल शासन किया जा सकता है... मैं चर्चिल से काफी हद तक सहमत हूँ... सबसे पहले हमने राजा रजवाडो की गुलामी की फिर मुगलों की और बाद में अंगेजो की और आज हम आतंकवाद की गुलामी कर रहे हैं...
नपुंसक और गुलामी पसंद समाज {unwilling society} कभी विद्रोह {revolt} नहीं करता वो केवल मर्दानगी और पौरुषता की काव्यात्मक अभिव्यक्ति {creative & artistic expression of machismo} ही कर सकता है... जब भारत पर चीन ने हमला बोला था तो देश के सारे कवी खड़े हो कर एक सुर के कहने लगे थे कि “हमे न जगाओ हम सोये हुए जंगली शेर हैं, जाग गये तो ज़लज़ला आ जाएगा”... कभी सोचा है ? कि कोई शेर ये कहता हो कि वो शेर है और उसे नींद से न जगाया जाए, सोते हुए जंगली शेर पर कंकर फेंक कर देख लिजियेगा अपने आप समझ आ जाएगा कि शेर क्या होता है... इसी तरह जब भी देश पर कोई समस्या खडी होती है तो समाज के अन्दर का कवि कविता कहने के आतुर हो उठता है बजाय उस समस्या को जड़ से ख़त्म करने के...
नपुंसक समाज {impotence society} अपनी पौरुषता {masculinity} को काल्पनिक और कलात्मक {creatively & artistically} ढंग से प्रदर्शित करता है और इसकी अभिव्यक्ति {expression or voice} हमे “A WEDNESDAY”, “BABY”, “HOLIDAY” “LAGAAN” और “”BORDER जैसी फिल्मो में देखने को मिलती है...
इजराइल के बारे में तो नहीं कह सकता लेकिन हिन्दुस्तान के बारे में हफीज सईद को इस बात का इल्म है तभी वो हिन्दुस्तान के टुकड़े करने के खवाब देख रहा है और शायद वो कामयाब हो भी जाए क्योकि भारत में पहले ही उसके खवाब को पूरा करने वाले मसर्रत, यासीन मालिक, आजम खान और ओवेसी जैसे लोग पल रहे हैं जो खाते तो हिन्दुस्तान का हैं लेकिन बजाते पकिस्तान की हैं अगर इनसे भी काम न बने तो इनको हथेली लगाने वाले मुलायम और कम्युनिस्ट वामपंथी तो हैं ही जो बीजिंग में बारिश होने पर दिल्ली में छाता खोल खड़े हो जाते हैं...
दूसरी तरफ एक गुजराती शेर है जो पहले कभी पाकिस्तान और कश्मीर की हर हरकत पर पंजा मारने को दौड़ता था वो अब दुनिया भर में दौड़ने को आमादा है और अब पंजा मारना तो दूर अब मिमियाता तक नहीं है...
बाकी जो है वो तो है ही...